पोक्सो केस में जमानत नहीं होनी चाहिए 

Publsihed: 04.May.2017, 19:47

अजय सेतिया / इलाहाबाद हाईकोर्ट ने गायत्री प्रजापति  को जमानत देने वाले लखनऊ के अतिरिक्त जिला एंव सत्र न्यायधीश ओम प्रकाश मिश्रा को निलम्बित कर के सही कदम उठाया है | हाईकोर्ट के इस कदम की जितनी तारीफ़ की जाए, उतनी कम है | कोई भी क़ानून तब तक सार्थक नहीं हो सकता, जब तक उसे लागू करने वाली एजेंसियां ईमानदारी से काम नहीं करती | यौन अपराधों से बच्चों का सरंक्षण सम्बंधित पोक्सो क़ानून को लागू हुए अब पांच साल होने को हैं | लेकिन आज पांच साल बाद भी देश के सभी जिलों में स्पेशल पोक्सो अदालतें नहीं बनाई गई हैं | कम से कम उन जिलों में तो विशेष पोक्सो अदालतें बनाई जानी चाहिए , जहा बच्चो के खिलाफ यौन अपराध के केस ज्यादा आ रहे हैं | क़ानून में राज्य सरकारों को सलाह दी गई है कि वे हाई कोर्ट के मुख्य न्यायधीश  से सलाह कर के विशेष अदालतों का गठन करें | इसी क़ानून में राज्य सरकारों को एक राहत यह दी गई है कि वे चाहें तो किशोर न्याय अधिनियम के अंतर्गत गठित अदालतों को ही पोक्सो की विशेष अदालतों का दर्जा दे दें | 
राज्य सरकारों की नौकरशाही का हाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट की डांट पड़ने से पहले वे न तो किसी क़ानून से सम्बंधित नियमावली बनाते हैं और न ही अन्य औपचारिकताएं पूरी करते हैं | पोक्सो के मामले में भी यही हुआ है, जब क़ानून लागू होने के तीन साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों को डांट पिलाई, तो आनन फानन में कहीं विशेष महिला अदालतों को पोक्सो की विशेष अदालत के अधिकार दे दिए और कहीं जुवेनाईल जस्टिस बोर्डों को विशेष पोक्सो अदालतों का दर्जा दे दिया | किशोर न्याय अधिनियम के अंतर्गत तो किसी एक आध राज्य को छोड़ कर विशेष अदालतें बनाई ही नहीं गई हैं | इस तरह खानापूर्ती करने का नतीजा यह निकला है कि विशेष अदालतों के जज विषय विशेष पर विशेषज्ञ नहीं हैं | इन कोर्टों के जज अपने अतिरिक्त कार्य को अस्थाई मानते हैं और क़ानून का गहराई से अध्ययन नहीं करते और न ही राज्य सरकारें जजों की ट्रेनिंग की व्यवस्था करती है | 

अभी यह नहीं कहा जा सकता कि पोक्सो मामले में गिरफ्तार गायत्री प्रजापति की जमानत अपराध की गंभीरता को समझने के बावजूद दी गई , क़ानून और अपराध की गंभीरता का एहसास न होने के कारण दी गई या जमानत के पीछे भ्रष्टाचार हुआ था | हाईकोर्ट ने ओम प्रकाश मिश्रा की ओर से दी गई जमानत पर रोक लगाते हुए, जो टिप्पणी  की है , वह इस मामले में भ्रष्टाचार होने का संदेह पैदा करती है |  हाई कोर्ट के मुख्य न्यायधीश बाबासाहेब भोसले ने अपनी टिप्पणी में कहा कि अतिरिक्त सेशन जज के इरादों पर संदेह पैदा होता है क्योंकि वह आज ही रिटायर होने वाले हैं, और उन्होंने मामले की गंभीरता के साथ साथ इस बात को भी नजरअंदाज  किया कि यह मामला  सुप्रीमकोर्ट के निर्देश पर दायर हुआ था | 
बच्चो के साथ यौन अपराध की इस घटना ने हमारी न्याय वयवस्था की पोल खोल कर रख दी है | न्याय देने वाले दो अदारों की पोल खुली है | सब से पहले तो पुलिस की पोल खुली है कि बच्चो के साथ यौन अपराध की शिकायत मिलने के बावजूद उस ने ऍफ़आईआर दर्ज नहीं की | इस सम्बन्ध में पोक्सो क़ानून में ही पुलिस को स्पष्ट निर्देश हैं कि वे शिकायत को तुरंत लिपिबद्ध करेंगे | इस सम्बन्ध में सुप्रीम कोर्ट सभी राज्यों के डीजीपी को हिदायत भी दे चुका है | इस के बावजूद उत्तर प्रदेश की पुलिस ने इस मामले की गंभीरता को नहीं समझी | दूसरी पोल न्यायपालिका की खुली है , जिसने बाल यौन अपराध के आरोपी को जमानत दे दी | शिकायतकर्ता ने अपनी शिकायत में कहा था कि प्रजापति उस के साथ तो दो साल गैंग रेप करता ही रहा , उन्होंने उस की अवयस्क बेटी के साथ भी छेड़छाड़ की | अभी यह कोर्ट में तय होना है कि छेड़छाड़ किस किस्म की थी | अगर यह छेड़छाड़ पोक्सो क़ानून की धारा 7 के अंतर्गत आती है तो प्रजापति को 3 से पांच साल तक की सजा होगी और अगर धारा 11 के अंतर्गत आती है तो तीन साल तक जेल की सजा हो सकती है | 
बाल यौन अपराध भारत में एक गंभीर मामला है, इसी लिए 2012 में बच्चों से सम्बंधित अलग क़ानून, अलग अदालतें, अलग सरकारी वकील की व्यवस्था करनी पडी है | इस लिए पुलिस और जजों को ज्यादा संवेदनशील होने की जरुरत है | लापरवाही करने वाले पुलिसकर्मियों के साथ राज्य सरकारों को कोई नरमी नहीं बरतनी चाहिए और उन्हें तुरंत निलंबित किया जाना चाहिए | इसी तरह पोक्सो अदालतों को भी , जब आरोपी व्यस्क हो तो चार्जशीट दाखिल होने तक उस को जमानत नहीं देनी चाहिए | इलाहाबाद हाई कोर्ट ने देश की सभी पोक्सो अदालतों के सामने उदाहरण पेश किया है | उम्मींद है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट का अतिरिक्त सेशन जज को निलंबित करना पोक्सो अदालतों के लिए नजीर का काम करेगा | 

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